Shree Haricharitramrut Sagar Book

History Of Shree Haricharitramrut Sagar Book(श्रीहरिचरित्रामृतसागर’ ग्रंथ का इतिहास )

 

‘श्रीहरिचरित्रामृतसागर’ ग्रंथ तो अनेक प्रकार की ऊर्जाओं का स्रोत है। जिस तरह सूर्य से अनेक प्रकार की ऊर्जाएँ प्राप्त होती हैं, उसी तरह इस ग्रंथ से भी बहुत प्रकार की ऊर्जाएँ प्राप्त होती हैं। जिस तरह गहरा सागर रत्नों से भरा है, उसी तरह यह ‘श्रीहरिचरित्रामृतसागर’ ग्रंथ बहुत गहरा है एवं अनेक प्रकार के जीवंत रत्नों से भरपूर है। भारतीय इतिहास में अनेक प्रकार का ऐसा समय आया था, तब देश को विकराल झंझावत का सामना करना पडा था। कभी कभी तो देश का शासन करने वाले भी चकनाचूर हो गये थे। कितने ही तख्त और ताज बदल गये थे, सत्ता का पतन हुआ था, किन्तु जनता का मनोबल प्रायः अक्षुण्ण बना रहा है।

इसके मूल में जो कोई और हेतु हो तो वह यह है कि हमारी परंपरा से प्राप्त हुई उन महापुरुषों की चिंतनधारा। कठिन काल में भी महापुरुषों के ग्रंथों में लिखा हुआ अपना चिंतन लोगों के लिये दैवीशक्ति जैसा साबित हुआ है। इस तरह इस श्रीहरिचरित्रामृतसागर ग्रंथ में भी बहुत दैवी शक्ति एवं दिव्य विचारसरणी भरी हुई है। इस लोक में सुखपूर्ण जीवन एवं परलोक में आत्यंतिकी मुक्ति को देनेवाला यह ग्रंथ है। भुक्ति और मुक्ति, श्रेय और प्रेय, दोनों का अद्भुत समन्वय इस ग्रंथ में किया गया है।

Shree Haricharitramrut sagar book

इस पुस्तक के लेखक भगवान श्री स्वामीनारायण के महान संत सिद्ध योगी सद्गुरु श्री अधरानंदजी स्वामी उर्फ ​​सिद्धानंदजी स्वामी हैं। इस पुस्तक के मुख्य नायक सर्वावतारि, सर्वकरण, समग्र तत्व के सर्व, वेदवेदांतवेद्य, करुणामूर्ति, परम भगवान श्री स्वामीनारायण हैं। इस पुस्तक में कथा वक्ता सद्गुरु श्रीमुक्तानन्दजी स्वामी हैं। जिन्हें श्री स्वामीनारायण भगवान गुरुतुल्य मानते थे। वे साधुता के प्रतीक थे। इस ग्रन्थ के मुख्य श्रोता सर्वभक्त शिरोमणि एवं आदर्श मुक्तराज श्रीउत्तमनरिप(दादाखाचर) है। इस ग्रंथ की रचना गुजरातीभाषी संत श्रीआधारानंद स्वामीजीने विक्रमकी उन्नीसवीं शताब्दि के द्वितीय दशक में श्रीस्वामिनारायण संप्रदाय के सर्वोत्तम तीर्थधाम वडताल में रहकर की है। यह ग्रंथ हिन्दी साहित्य का दुर्लभ एवं बृहद् महाकाव्य है। गुजराती संत ने करीब डेढ शताब्दि पूर्व गुजरात प्रदेश में रहकर ही राष्ट्र भाषा हिन्दी में इस ग्रंथ की रचना की है, जो हिन्दी भाषा की लोकप्रियता एवं गौरव को सूचित करती है।

इस ग्रंथ की विशेषता मात्र इसकी विशालता में नहीं है, किन्तु यह स्वरूप से जैसे बडा है, वैसे तत्त्वज्ञान में भी बहुत गहरा है। इस ग्रंथ में महाभारत से भी अधिक एवं उत्तम तत्त्वज्ञान भरा है। एवं स्वामीजी ने इसमें अपने समय के समाज एवं तत्कालीन इतिहास का भी दर्शन कराने का प्रयास किया है। यह ग्रंथ जीवन के सजीव मूल्यों पर बहुत बडा भार दे रहा है। इसमें प्रयुक्त हिन्दी भाषा, राष्ट्र एवं लोगों की एकता का सेतु है। इससे हिन्दी साहित्य का मूल्य भी अत्यधिक समृद्ध बना है। सागर के सच्चे मोती की तरह इस ग्रंथ में स्थित सच्चे मोती जैसा उपदेश अपने अपने स्थान पर मूल्य एवं महत्त्व की दृष्टि से सूर्य की तरह चमक रहा है। जैसे नदीओं में गंगा, मणिओं में चिंतामणि और वृक्षों में कल्पवृक्ष श्रेष्ठ है, इसी तरह सभी ग्रंथो में यह ग्रंथ सर्वोत्तम है। इसमें वैदिक तत्त्वज्ञान, गीता का गलितार्थ एवं वचनामृत का रहस्य बहुत स्थान पर लिखा हुआ नजर आता है।

करीब तेरह वर्ष की कठिन साधना, श्रीहरिजी महाराज की अंतः प्रेरणाऔर बडे बडे संतो की कृपा से हमारे महान संत आधारानंदजी (सिद्धानंदजी) स्वामी ने प्रायः लाख श्लोक वाले विशालकाय इस ग्रंथ की रचना की है। स्वामिनारायण संप्रदाय का ही नहीं किन्तु हिंदी साहित्य का यह सबसे बडा ग्रंथ है। अक्षराधिपति श्रीहरि के हाथ से वडताल में प्रतिष्ठापित श्रीहरिकृष्ण महाराज जैसे विश्व में अद्वितीय है, वैसे ही यह ग्रंथ भी विश्व में अद्वितीय है।

यह ग्रंथ जब हमारे मंडल के संत सन् २००८ के सितम्बर मास में, वडताल में नंदसंत लिखित एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा के लिये गये थे, तब वडताल में ही साहित्यप्रेमी शास्त्री श्रीहरिजीवनदासजी स्वामी संग्रहीत साधुसमाज की लाइब्रेरी में प्राप्त हुआ था। उस समय इस कार्य में वडताल मंदिर के तत्कालीन चेरमेन एवं सत्संग महासभा के प्रमुख प.पू. शास्त्री श्रीनौतमप्रकाशदासजी स्वामी एवं तत्कालीन लाइब्रेरी संरक्षक अ.नि.प.पू.शास्त्री श्रीगोपालचरणदासजी स्वामी तथा वडताल स्थित साधुसमाज ने हमको संपूर्ण साथ सहकार दिया था। इस ग्रंथ का पाँचवाँ और छठवाँ पूर कई साल से नहीं मिल रहे थे, ए दो पूर लाइब्रेरी के एक खंड में निकाल दिये हुए जीर्ण ग्रंथों के ढग से पहलीबार हमारे मंडल के संत श्यामचरणदासजी स्वामी के हाथ लगे थे ।

दो पूर मिल जाने से यह ग्रंथ पूर्णरूप में पहलीबार प्राप्त हुआ, पूर्ण खुशीके साथ उपर्युक्त संतो की अनुमति से यह संपूर्ण ग्रंथ को स्केन किया गया।बाद में इसकी एक नकल गांधीनगर स्थित प. पू. शास्त्री श्रीहरिप्रकाशदासजीस्वामी को भेजी। इसको संपूर्ण देखकर स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए। मानो खोयाहुआ कोई खजाना प्राप्त हुआ हो !! तदनंतर अपने सहयोगी प.पू.शास्त्रीश्रीज्ञानप्रकाशदासजी स्वामी को इस ग्रंथ का संपूर्ण गुजराती अनुवादकरने की प्रेरणा दी। प.पू. शास्त्री स्वामीजी ने भी इस कार्य को सहर्ष स्वीकारकिया एवं उत्साहभर पूर्ण किया। शास्त्री श्रीहरिप्रकाशदासजी स्वामी ने यहश्री हरिचरित्रमृतसागर ग्रंथ का श्रीस्वामीनारायण साहित्य क्रमशः बारह भागों मेंप्रकाशन मंदिर, गुरुकुल सेक्टर-२३ (गांधीनगर) से प्रकाशन किया हैं। इस कार्यसे हम, हमारे मंडल के सभी संतगण एवं सभी सत्संगसमाज बहुत प्रसन्न हुए हैं।गुजराती अनुवाद प्रकाशित हो चुका, इसके बाद संतहरिभक्त सब इसका पाठ करने लगे हैं। तब मेरे हृदय में श्रीहरि ने प्रेरणा दी कि जिस तरह अन्य लोग हरिमंदिर बनाते हैं, इस तरह यह ग्रंथरूप साहित्य मंदिर को भी मूल स्वरूप में प्रकाशन किया जाए तो यह ग्रंथ अमर बन जायगा। देशकाल से इनकी सदा के लिये सुरक्षा हो जायगी। मूल ग्रंथ के अभ्यास पीपासुओं की जिज्ञासा भी पूर्ण हो जायगी। और तत्त्व से अभ्यास करने वालों को भी आनंद मिलेगा।

139_Hari-Cha.-Sagar-Bhag-1-Pur-123.pdf

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